क्या कोई स्वयं को राजर्षि , ऋषि , महर्षि अथवा ब्रह्मर्षि कह सकता हैं ?
इस समय घोर कलियुग व्याप्त हैं और धर्म को एक उद्योग और गुरु-शिष्य संबंधों को व्यापार बना लेने की होड़ मची हुई हैं । जिसे देखो वो स्वयं को सन्त , साधक , तपस्वी सिद्ध करने पर तुला हुआ हैं । इस होड़ में स्वयं के नाम के आगे मनमर्जी की उपाधियाँ लिखने की होड़ मची हैं । लोग अपने नाम के आगे राजर्षि , ऋषि , महर्षि अथवा ब्रह्मर्षि आदि उपाधियाँ लिखने लगे हैं ।
आज मैं “वाल्मीकीय रामायण” से उदाहरण लेकर दर्शाने का प्रयत्न करूंगा की क्या ऐसी उपाधियाँ (राजर्षि , ऋषि , महर्षि अथवा ब्रह्मर्षि आदि) लगाईं जा सकती हैं अथवा नहीं।
वाल्मिकी रामायण में बालकाण्ड के सर्ग 51 से 65 तक विश्वामित्र का प्रसंग आता हैं जिनमे विश्वामित्र द्वारा तपस्यापूर्वक क्रमशः राजर्षि , ऋषि , महर्षि अथवा ब्रह्मर्षि आदि पदों की प्राप्ति का वर्णन हैं । किन्तु सबसे पहले आइये देखते हैं ऋषि किसे कहते हैं ? अथवा ऋषि कौन हों सकता हैं ? :-
श्रुति ग्रंथों (अर्थात् वेदों) का प्रत्यक्ष और साक्षात् दर्शन करनेवाले महात्माओं को “ऋषि” कहा जाता हैं । “ऋषि” शब्द की व्युत्पत्ति “ऋषि” गतौ धातु से मानी जाती हैं । ऋषु + इगुपधात् कित् इति उणादिसूत्रेण इन् किञ्च् ।
वायु पुराण कहता हैं –
“ऋषित्येव गतौ धातु: श्रुतौ सत्ये तपस्यथ् ।
एतत् संनियतस्तस्मिन् ब्रह्मणा च ऋषि स्मृत: ॥“
इस श्लोक के अनुसार ऋषि धातु के चार अर्थ होते हैं :- 1) गति , 2) श्रुति , 3) सत्य तथा 4) तपस् । जिस व्यक्ति में यह चारो गुण हैं वह ऋषि हैं । इस श्लोक के अनेकों संस्करण दूसरे पुराणों में भी प्राप्त होते हैं ।
अधिक गहराई में न जाएँ तो - “तपस्या से पवित्र अंतर्ज्योति संपन्न मंत्रद्रष्टा महात्माओं की ही संज्ञा ऋषि हैं ; यह “ऋषि” की एक सर्वमान्य परिभाषा होती हैं ।
वाल्मिकी रामायण, बालकाण्ड के सर्ग 51 से 65 तक विश्वामित्र के प्रसंग में देखें तो हमें ज्ञात होता हैं की हज़ारों वर्षों तपस्या करने के उपरान्त विश्वामित्र को ब्रह्माजी द्वारा “राजर्षि” पद प्राप्त हुआ था । “राजर्षि” हों जाने के उपरान्त ही विश्वामित्र नवीन सृष्टि हेतु समर्थ हों पाए थे (देखिये त्रिशंकु प्रकरण) ।
“राजर्षि” हों जाने के उपरान्त कई हज़ारों वर्षों तक कठोर तप करने के उपरान्त उन्हें “ऋषि” पद तत्पश्चात और कई हज़ारों वर्ष तपश्चर्या के उपरान्त उन्हें “महर्षि” पद प्राप्त हुआ था । राजर्षि से महर्षि बन्ने की प्रक्रिया के दौरान अनेकानेक विघ्न उपस्थित हुए और अनेकानेक बार हज़ारों वर्षों की तपश्चर्या पुनः करनी पड़ी ।
“महर्षि” हों जाने के उपरान्त विश्वामित्र ने प्रतिज्ञा ली ;-
तावद् यावद्धि मे प्राप्तं ब्राह्मण्यं तपसार्जितम् ।
अनुच्छ्वसत्रभुंजानस्तिष्ठेयं शाश्वतीः समा: ॥
(वाल्मीकीय रामायण , बालकाण्ड , सर्ग 64 , श्लोक 19)
अर्थात् – “जबतक अपनी तपस्या से अर्जित ब्राह्मणत्व (ब्रह्मर्षित्व) मुझे प्राप्त नहीं होगा , तबतक चाहे अनंत वर्ष बीत जाएँ , मैं बिना खाए पीये खडा रहूंगा और सांस तक न लूंगा ।“
विश्वमित्र अपने संकल्प के अनुसार एक हज़ार वर्ष तक निराहार और बिना सांस लिए खड़े रहे और तप किया । तप के उपरान्त उन्होंने अपने लिए भोजन-प्रसाद तैयार किया । उसी समय इंद्र ब्राह्मण के भेष में आये और उसी भोजन की याचना की । विश्वामित्र ने अपने लिए तैयार किया हुआ सारा भोजन इंद्र को दे डाला और स्वयं पुनः निराहार और निश्वास सहस्त्र वर्षों के तप में लग गए ।
उस समय पूरी सृष्टि व्याकुल हों उठी और ब्रह्मा आदि देवताओं ने उन्हें ब्रह्मर्षि पद प्रदान किया । ब्रह्मर्षित्व प्राप्त होने के बाद विश्वामित्र को ॐकार , वषट्कार और चारों वेदों ने स्वयं आकर वरण किया और वसिष्ठ ने भी विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि माना (देखें वाल्मीकीय रामायण , बालकाण्ड ,सर्ग 65) ।
विश्वामित्र दिव्यजन्मा थे तो भी ब्रह्माजी ने स्वयं आकर आपको राजर्षि , ऋषि , महर्षि अथवा ब्रह्मर्षि आदि उपाधियाँ प्रदान की। आजकल जिसे देखो वो स्वयं के नाम के आगे ऐसी उपाधियाँ लिख लेता हैं ।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जो ठहरी !
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