Hindu Mandiro ki Nakashi
तमिलनाडु के तिरुकुरुगुंडी
तमिलनाडु के तिरुकुरुगुंडी का प्रसिद्ध वैष्णवी विष्णु मंदिर सर्वाधिक नक्कासीदार मंदिरों में से एक है। यह स्थान तिरुनेलवेली से 45 किमी. दूर है। इस मंदिर के वाह्य भाग में अन्य नक्कासीदार शिल्प में सिर्फ एक फुट का हाथी बना है। वह अपने आप में अनूठी कला लिए है। यह हाथी केवल नौ महिलाओं-महिलाओं से बना है। हाथी के सभी अंग-प्रत्यंग नौ महिलाओं की विभिन्न मुद्राओं से शिल्पित हैं। संभवतः यह हाथी कामदेव का रूप है। महिला के विभिन्न मुद्रा, भाव-भंगिमा, यौवनाकर्षण से कोई बच नहीं सकता। इसी के प्रतीक स्वरूप सबसे ऊपर एक महिला काम-बाण लेकर आरूढ है। ऐसा ही एक हाथी कर्नाटक के जैन मठ मूडबद्री के मुख्य मंदिर के प्रवेश-द्वार के द्वार पर बना है। यहाँ यह नक्कासी काष्ठ का द्वार पर काष्ठ में ही की गई है।
शास्त्रों में कन्याओं के अलग अलग स्वरूप वर्णित हैं। उनमें कन्या का एक प्रकार ‘गजगामिनी कन्या’ भी दिया गया है
।
गज रूपी नौ नारियां मनुष्य के शरीर के नौ द्वार हैं जिसके उपर चढ़कर बैठा धनुर्धर मन है। गज और घोड़े तथा नीचे बना हुआ मकर संसार के मायाजाल का प्रतीक है और गज तथा घोड़े के सबसे ऊपर बनी आकृति आत्मारूपी गुरु हैं। वहीं दूसरी ओर घोड़े को बनाती पांच स्त्रियां मनुष्य की पांच इंद्रियां हैं जिससे वशीभूत होकर मनुष्य विभिन्न कर्म करता है। अत: इंद्रियां रूपी घोड़े पर सवार धनुर्धर मन है जिसमें गति है, इसलिए गति को घोड़े के रूप में दर्शाया गया है। मन ने इंद्रियों को वश में कर रखा है। दूसरी ओर हाथी की संरचना इस धरती को प्रकट करती है। जिस प्रकार इन्द्र के सफेद हाथी ऐरावत को अपने बल का अंहकार हो गया था कि उसके समान कोई बलशाली नहीं है,तब नारायण स्वयं मकर का रुप धरकर सरोवर में उतरे और गज के अहंकार को दूर किया था। उसी प्रकार इस संसार में आकर गज जैसा अहंकार को धारण करने वाले मनुष्यों के अहंकार को मकर रुप यानि छलिया का रुप लेकर नारायण दूर करते हैं। मायाजाल से स्वयं को बचा कर नारायण में खुद को समर्पित कर देना ही इस मुर्ति का आशय है। जब नारायण की प्राप्ति होती है तब रुद्र का उद्भव होता है। अर्थात रूद्र का अर्थ है सृजन यानी आत्मिक सृजन। पुनः संसार में आने और जाने का चक्र। इसीलिए सबसे ऊपर फिर से माया के प्रतीक मकर की मुर्ति उकेरी हुई है। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य नौ द्वार ,पांच इंद्रियां आंख,नाक,कान,त्वचा और जीभ,दस दिशाओं - आकाश पाताल ,पूरब , पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, वायव्य,नैऋत्य,आग्नेय, ब्रह्मस्थान, चार धर्म -धर्म अर्थ काम मोक्ष को प्राप्त करके अपने सद्गुरु ईश्वर को प्राप्त कर सकता है किंतु माया रूपी गज काम ,क्रोध, लोभ मोह, द्वेष,घृणा और अहंकार आदि से भरा हुआ है जिसमें से मनुष्य अपने सत्कर्मों द्वारा ही संसार रूपी भंवर जाल से निकल सकता है। मनुष्य के इस भ्रम को नारायण धरती पर मकर के समान प्रकट होकर समय-समय पर दूर करते हैं। रूद्र की मुर्ति में आंखों के स्थान पर मछली की आकृति बनाई गई है। यह मछलियां चक्षु रूपी जल के ऊपर बनी हुई हैं। चक्षुओं के जल की तुलना वैतरणी नदी से की गई है। इच्छाओं की नदी को ही वैतरणी नदी कहते हैं जिससे मनुष्य का पार पाना असम्भव है। मनुष्य अपनी इच्छाओं के वश में रहता है और उन्हीं के दबाव में यथावत कर्म करता है। मुर्तियों में चक्षुजल के भीतर मत्स्य (मीन) की आकृति कुरेदी गई है जिसका अर्थ है कि इस संसार में रहते हुए अनासक्त भाव में स्थित हो जाना। जैसे पानी में मीन रहती तो है किंतु जल का असर उसपर नहीं होता है। अर्थात इस संसार में आंखें तो बहुत कुछ दिखाती हैं। मनुष्य इस धरती पर जन्म लेने के पश्चात चक्षु इंद्र से सबकुछ देखता है। जब आंखों पर माया का चश्मा लगा होता है तो मानव मोहपाश में बंधता है। आंखों से सबकुछ देखते हुए समभाव में रहना ही पुरषोत्तम भाव है। पशुपति भगवान शिव के चक्षुओं पर बनी मछली अनासक्ति भाव का प्रतीक हैं।
प्राचीन काल और प्राचीन कला अद्भुत सनातन संस्कृति से सराबोर थे। इसे गहनता से समझने की आवश्यकता है।
क्युंकी कि खरगोश की प्रजनन क्षमता तेज तथा अत्यधिक होती है इसलिए खरगोश की आकृति मनुष्य के विभिन्न योनियों में लगातार जन्म लेने का प्रतीक हैं। रूद्र की मुर्ति के कंधों पर बने नाग मृत्यु के देव धर्मराज के प्रतीक हैं जो फन फैलाकर स्थिर है। अर्थात जीव की मृत्यु कभी भी किसी भी क्षण आ सकती है। कहने का तात्पर्य यह है कि शिव ही सृजन है और शिव ही विनाश का प्रतिरूप हैं। इन मंदिरों में ईश्वर की प्रकृति एवं कालचक्र को प्रतिलिपि के रुप में संभवतः उकेरा गया है।
(लेखिका प्रीतिसागर गर्ग)
No comments:
Post a Comment